कँवल जी का सिर्फ ये तीसरा ही उपन्यास था पर अब तक कँवल जी उपन्यास जगत में एक मकबूल नाम बन चुके थे. प्रथम उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया था और दूसरा थोडा कम पर पसंद वो भी आया था.
जब यह उपन्यास आया था तो मैं काफ़ी परेशानियों के दौर से गुजर रहा था और मुझे उपन्यास के बारे में कोई भी पूर्वाग्रह बनाने का समय ही नहीं मिला था.
उपन्यास पढ़के मुझे भरपूर आनंद आया हालाँकि कहानी में कोई नयापन मुझे महसूस नहीं हुआ, कहानी थोड़ी उस ज़माने की लगी जब, कई फिल्मों में आप जिस किसी को विलेन समझ रहे होते थे वो अंत में cid ऑफिसर या कोई स्पाई या पुलिस द्वारा स्थापित किया गया बदमाश होता था. अब प्रश्न ये की आनंद किस बात में आया?
कँवल जी की एक ख़ासियत यह है कि उनकी भाषा शैली जो बिलकुल स्वाभाविक लगती है जैसे कि आप खुद बोलते या सुनते हैं दैनिक जीवन में. इसी वजह से मैंने कँवल जी के सभी उपन्यास एक ही सिटींग में पढ़े हैं.
दूसरी ख़ासियत कँवल जी के उपन्यास में यह होती है कि किताब का मूल्य तो उनके लेखकीय में ही वसूल हो जाता है, मूल उपन्यास बोनस होता है. हर उपन्यास में कँवल जी कोई न कोई नया विषय प्रस्तुत करते हैं और उस विषय पर इतना शोध करके जानकारियां प्रस्तुत करते हैं कि गूगल और विकिपीडिया भी एक बार को शर्मा जाएँ. जैसे कि नोटबंदी और बैंकिंग पर, साहित्यिक ‘प्रेरणा’ लेकर कोई रचना लिखना, दुनिया भर के व्यंजनों पर इत्यादि.. अब तो मुझे यह इंतज़ार रहता है कि अगली बार क्या विषय होगा लेखकीय का..
नए उपन्यास जिप्सी के इंतज़ार में..